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Sunday, April 24, 2011

डब्बू की डिबिया (बाल उपन्यास)

डब्बू की डिबिया
(बाल उपन्यास)
-डॉ॰ जगदीश व्योम

झुम्मन की बगीची की तरफ से जाने में लोग कतराने लगे थे। उधर से कोई भूला-भटका ही निकलता। बस्ती से बड़ी सड़क तक जाने के लिए एक और भी पगडंडी थी परन्तु यह रास्ता थोड़ा लम्बा पड़ जाता था। फिर भी लोग इसी लम्बे रास्ते से आते जाते थे क्योंकि इस रास्ते पर बगची नही पड़ती थी। बगीची के रास्ते से जाने से लोग नही कतराते थे। कुछ दिन पहले एक रहस्यमयी घटना कुछ लोगों ने देखी। फिर तो कानों-कान खबर पूरी बस्ती में फैल गई कि "झुम्मन की बगीची में कुछ गड़बड़ है"।
हुआ यह आधी रात के समय सुनसान अँधेरी बगीची में एकदम उजाला फैल गया और एक अजीब तरह की आवाज भी सुनायी दी। इसे केवल एक चौकीदार ने देखा। सुबह उसने यह घटना लोगों को सुनायी। कुछ ने इसे झूठ माना, कुछ ने कहा कि यह कोरा भ्रम है। कुछ ने कहा कि चौकीदार ने ज्यादा ही छान ली होगी। बात आयी गयी हो गई।
एक रात डब्बू की छोटी बहन रधिया पेशाब करने के लिए उठी। उसने देखा कि बगीची के ऊपर कोई गोल-गोल चीज घूँ ॐ ॐ........घूँ ॐ ॐ......घूँ ॐ ॐ......की आवाज करते हुए चक्कर काट रही है। पूरी बगीची रोशनी से नहायी हुई है।
रधिया की चीख निकल गई। घर के अन्य लोग भी जाग गये और रधिया से चिल्लाने का कारण पूछा। वह कुछ कह नहीं पायी। सिर्फ उँगली से बगीची की ओर इशारा करने लगी। बगीची में अब भी प्रकाश था पर कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा था। कुछ ही सैकेण्ड में प्रकाश भी गायब हो गया।
इस घटना के बाद चौकीदार की बात पर चर्चा होने लगी। कोई कुछ कहता तो कोई कुछ। कोई कहता कि चोर डकैत होंगे जो चोरी के माल का बँटवारा कर रहे होंगे। कोई कहता कि बगीची में जो पीपल का पेड़ है, उस पर बड़ा भूत रहता है। यह सब उसी भूत की करामात है। कोई कहता कि बगीची में रात को जासूस आते हैं। कोई कहता कि यह सब स्मगलिंग का चक्कर है।
सब अपना-अपना अनुमान लगा रहे थे लेकिन अपनी बात पर किसी को पूरा भरोसा नहीं था। सिर्फ अनुमान के सहारे सब अपनी-अपनी बात कर रहे थे। हाँ पूरी बस्ती के मन में भय की एक छाया अवश्य थी। महिलायें तो और भी अधिक भयभीत थीं। क्योंकि भूत-चुड़ैलों पर वे कुछ ज्यादा ही विश्वास करती हैं।
बात आयी-गयी हो गई और लोगों ने अपना रास्ता बदल लिया। बगीची की ओर कोई भूला भटका ही जाता। बिल्कुल उपेक्षित सी हो गई थी झुम्मन की बगीची। डब्बू के माता-पिता ने उसे अच्छी तरह समझा दिया था कि 'बगीची वाले रास्ते से कभी भूल कर भी मत जाना।` डब्बू के मन में कई कई प्रश्न उठते। उसने अपनी भूगोल की पुस्तक में पढ़ा था कि अन्तरिक्ष में अरबों-खरबों तारे और ग्रह हैं। कई तारे तो पृथ्वी से आकार में बहुत बड़े हैं। ये तारे आपस में एक-दूसरे के आकर्षण से सधे हुये हैं। कभी-कभी इनमें से कुछ तारे गिरते रहे हैं। कभी-कभी ये पृथ्वी पर भी आकर गिरते हैं। गिरते समय इनमें भारी चमक होती है और पृथ्वी तक आते-आते ये जलकर नष्ट हो जाते हैं। डब्बू सोचने लगा कि यह घटना भी किसी तारे के गिरने की हो सकती है।
कुछ दिन पहले एक पत्रिका में छपा लेख डब्बू ने पढ़ा था, जिसमें बताया गया था-
"किसी ग्रह से उड़न-तस्तरियाँ पृथ्वी पर आती हैं। ये तेज प्रकाश करती हुईं पृथ्वी पर उतरती हैं और घूँ ॐ ॐ.........घूँ ॐ ॐ........की आवाज भी करती हैं। जब इनका पीछा किया जाता है तो तुरन्त गायब हो जाती हैं। ये कहाँ से आती हैं? और कहाँ चली जाती हैं? यह सब रहस्य बना हुआ है।......दुनिया के अनेक देशों में ऐसी घटनाएँ देखी गईं हैं। दुनिया भर के वैज्ञानिक इनका पता लगाने का प्रयास कर रहे हैं।"
डब्बू पत्रिका में पढ़ी रोमांचक जानकारी के बारे में गंभीरता से सोचने लगा। उसे यह भी लगा कि किसी से अपने मन की बात कहेगा तो लोग उसे डाँट देंगे। भूत-प्रेत की बातों पर उसे विश्वास नहीं था। क्योंकि उसके 'सर` ने बताया था कि -
"भूत-प्रेत कुछ नहीं होते। सिर्फ मन का वहम होता है। कुछ चमत्कार पूर्ण घटनाएँ घटती रहती हैं, जिन्हें हम समझ नहीं पाते और हम उन्हें भूत-प्रेत की घटनाएँ मान कर डर जाते हैं।"
डब्बू का बगीची से बहुत लगाव था। पहले वह प्रतिदिन बगीची में जाता था। बगीची के पेड़ों से उसकी दोस्ती थी। वह उनसे घण्टों बतियाता। वह उनमें पानी देता। परन्तु अब तो डब्बू का उधर जाना ही बन्द हो गया था। डब्बू के दो ही शौक थे- जानवरों और पेड़-पौधों से दोस्ती करना और किताबें पढ़ना।
किसी बात को डब्बू ऐसे ही नहीं मान लेता। वह जब तक सन्तुष्ट नहीं हो जाता, तब तक उसे विश्वास नहीं होता। कई बार तो अपनी मैडम और 'सर` से भी वह तर्क करने लगता था। मैडम देवरानी तो उसके तर्कों से घबरा जातीं और प्रश्न पूछते ही उसे बुरी तरह डाँट देतीं। विज्ञान की मैडम मैत्रा, डब्बू की हर बात पर गम्भीरता से विचार करतीं और उसकी समस्या का ऐसा समाधान करतीं कि डब्बू खुश हो जाता। यही कारण था कि डब्बू मैडम मैत्रा का परम भक्त था। मैडम मैत्रा भी कहती थीं कि यह छात्र भविष्य में बड़ा वैज्ञानिक बनेगा। यह सुनकर डब्बू गर्व से फूल उठता।
डब्बू ने निश्चय कर लिया कि बगीची की ओर जाने का जब भी उसे मौका मिलेगा, वह जरूर जायेगा। स्कूल बस से उतर कर कभी-कभी वह बगीची वाले रास्ते से आने लगा।
एक दिन बगीची वाले रास्ते से डब्बू आ रहा था कि उसे थोड़ी दूर पर कुछ आवाज सुनायी दी। डब्बू ने सोचा कि अगर मुझे किसी ने इस रास्ते से आते देख लिया तो घर पर शिकायत हो जाएगी और फिर डाँट पड़ेगी। इसी डर से डब्बू बगीची के अन्दर जाकर छिप गया कि कहीं उसे कोई देख न ले।
वह एक झाड़ी के पास खड़ा हो गया और इन्तजाऱ करने लगा कि जब रास्ता साफ हो जाय तब वह निकले। तभी पास की झाड़ी में चमकती दो आँखों की ओर उसका ध्यान गया। एक पल के लिए तो वह बुरी तरह डर गया, परन्तु उसने साहस नहीं छोड़ा और ज़मीन से मिट्टी का एक ढेला उठाकर उसने झाड़ी की ओर फेंका। झाड़ी में से एक खरगोश निकल कर भागा। इसे देखकर डब्बू ने राहत की साँस ली और सोचने लगा कि "अरे! मैं तो यूँ ही डर गया था।"
डब्बू की निगाह झाड़ी के अन्दर पड़ी किसी चीज की ओर गई। उसने झुककर देखा, यह एक गोल डिबिया की तरह कोई चीज थी। डब्बू ने अच्छी तरह देखा कि कहीं यह कोई बम आदि तो नहीं है। जब उसे पूरा विश्वास हो गया कि यह कोई खिलौना है तो डब्बू ने उसे एक बड़ी लकड़ी से अपनी ओर खिसकाया और लकड़ी से ही उसे उलट-पलट कर देखा। जब उसे विश्वास हो गया कि कोई खतरा नहीं है, तो उसने डिबिया को उठा लिया।
डब्बू उस डिबिया को उलट-पलट कर बारीकी से देखने लगा। उसने देखा कि डिबिया को पीछे से थोड़ा सा दबाव देकर खोला जा सकता है। डब्बू ने अँगूठे से दबाव दिया और डिबिया खुल गई। उसके अन्दर पतले-पतले तारों का जाल सा बिछा हुआ था। उन्हीं तारों के बीच में कागज का एक पुर्जा रखा हुआ था। कागज के पुर्जे को डब्बू ने बड़ी सावधानी से निकाला और खोला। उसमें छोटे-छोटे अक्षरों में कुछ संकेत थे। डब्बू ने संकेत पढ़े।
पहला संकेत था कि- डिबिया के ऊपर बीचोबीच में बने छेद में मुँह से तीन बार फूँक मारो। डब्बू को पसीना आ रहा था कि पता नहीं इस डिबिया का क्या रहस्य है। वह सोचने लगा कि "आखिर वह क्यों चला आया?.....उसे यहाँ नहीं आना चाहिये था।"
मन को मजबूत करके डब्बू ने डिबिया के बीचो-बीच बने छेद में तीन बार फूँक मारी। उसने देखा कि ऊपर की प्लास्टिक का रंग बदल रहा है। थोड़ी देर में डिबिया का रंग हरे से पीला हो गया और तीन बटन उस पर उभरे हुए दिखाई देने लगे। एक का रंग लाल था, दूसरे का हरा और तीसरे बटन का रंग सफेद था। डब्बू ने पुर्जे का अगला संकेत पढ़ा, जिसमें लिखा था-
लाल बटन दबाने पर इस यंत्रा से ऐसी किरणें निकलती हैं, जिससे बटन दबाने वाला व्यक्ति सूक्ष्म तरंगों में बदल जाता है। वह तीन सैकेण्ड में अदृश्य हो जाता है। उसे कोई नहीं देख सकता है। वह सब कुछ देख सकता है। पीला बटन दबाने से, बटन दबाने वाला मनचाही जगह पहुँच सकता है। उसे जाते हुए भी कोई नहीं देख सकता। सफेद बटन दबाने से, बटन दबाने वाला व्यक्ति सूक्ष्म-तरंगों से पुन: असली रूप में आ जाता है।
डब्बू यह संकेत पढ़कर खुशी से नाच उठा। उसे ऐसी चीज मिल गई थी, जिसे पाने के लिए बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी सैकड़ों साल से जुटे हुए हैं। अब वह अपनी मनचाही जगह जा सकेगा। डब्बू सोचने लगा कि वह घने जंगलों में जहाँ चाहेगा, आसानी से घूमेगा। खतरनाक जंगली जानवरों के बीच में भी रह सकेगा। वह सबको देख सकेगा पर उसे कोई नहीं देख पायेगा, आसानी से घूमेगा। डब्बू इसी कल्पना में खोया हुआ था कि उसे ध्यान आया कि घर जाने के लिए बहुत देर हो गई है। तभी डब्बू सोचने लगा कि क्यों न डिबिया को आजमा लिया जाये। घर जाकर सबको चौंका देगा।
डब्बू हाथ आयी अनमोल डिबिया को जल्दबाजी में तमाशा बनाना नहीं चाहता था। वह सोचने लगा- "हो सकता है जल्दबाजी में उसे किसी ने देख लिया और डिबिया का रहस्य खुल गया तो लोग डिबिया चुराने के लिए पूरी कोशिश करेंगे, इसलिए जल्दबाजी ठीक नहीं।" यह सोचकर उसने डिबिया अपने बैग में सँभाल कर रख ली और तेजी से घर की ओर दौड़ चला।
रात को डब्बू की आँखों की नींद गायब थी। वह तो भविष्य के सपनों में खोया हुआ था। वह आँखें बन्द किये लेटा रहा और सोचता रहा कि जंगल की यात्रा कब और कैसे की जाये। उसने निर्णया कर लिया कि बगीची को अपनी डिबिया की प्रयोग-स्थली बनाएगा। अगले दिन विद्यालय से आते समय डब्बू बगीची वाले रास्ते से ही आया। अब उसे बगीची के पास किसी तरह का डर नहीं लग रहा था।
डब्बू बगीची के अन्दर चला गया और उसने अपनी डिबिया निकाल ली। मन पक्का कर डब्बू ने डिबिया के लाल बटन को दबा दिया। बटन दबाते ही डब्बू सूक्ष्म तरंगों में बदल गया। उसने मन में विचार किया कि वह किसी घने जंगल में जाना चाहता है। यह सोचते हुए उसने पीला बटन दबा दिया। अब डब्बू अनजानी दिशा की ओर उड़ा चला जा रहा था। वह सबको देख रहा था पर उसे कोई नहीं देख सकता था। कुछ ही क्षण में डब्बू एक घने जंगल के बीच था। जानवरों की भयंकर आवाजें सुनकर एक बार तो डब्बू घबरा गया। तभी उसके सामने झाड़ियों में से छलाँग लगाकर शेर आ गया। डब्बू की चीख निकल गई। शेर उससे दो फुट की दूरी पर खड़ा था परन्तु शेर का ध्यान डब्बू की ओर नहीं था। तभी डब्बू को याद आया कि-
"अरे! मैं तो बेकार ही परेशान हो गया। मुझे तो शेर देख ही नहीं सकता और न मेरी आवाज सुन सकता है, फिर डर कैसा!"
डब्बू सतर्क हो गया और अपनी घबराहट पर उसे हँसी आयी। वह सोचने लगा कि उसे घबराना नहीं चाहिए। कहीं घबराहट में डिबिया का सफेद बटन दब जाता तो अनर्थ ही हो जाता और अभी उसे, शेर चट कर जाता। वह जिस अभियान पर निकला है उसमें बहुत खतरा है, इसलिए भविष्य में बहुत सावधान रहेगा।
डब्बू जंगल में खुशी से घूम रहा था। वह ऐसे-ऐसे जानवरों को पास से देख रहा था जिन्हें आज तक दुनिया का कोई भी साहसी से साहसी व्यक्ति भी इतने पास से नहीं देख पाया। डब्बू जंगल के कोने-कोने में घूम चुका। जंगली जानवरों को उसने नजदीक से देखा। डब्बू के मन में अब एक इच्छा और हुई कि काश! वह जानवरों की भाषा समझ सकता। लेकिन यह कैसे हो सकता है?
डब्बू एक झरने के पास पहुँचा जो काफी ऊँचा और निर्जन था। वहाँ कोई खतरा नहीं था। डब्बू ने सफेद बटन दबा दिया और वह अपने असली रूप में आ गया। झरने से डब्बू ने पानी पिया और आराम करने लगा। वह डिबिया को कसकर हाथ में पकड़े हुए था कि कहीं खो न जाये। तभी उसकी निगाह तीनों बटनों के पास उभरे हुए बिन्दु पर गई। डब्बू सोचने लगा कि यह स्थान थोड़ा-सा उभरा हुआ है, आखिर ऐसा क्यों?.......जरूर इसका भी कुछ कारण है। उसने उभरे हुए बिन्दु पर जोर से दबाव डाला, तभी डिबिया के बीच में बने छेद से उसे एक छोटी-सी कोई चीज निकलती हुई दिखाई दी। डब्बू ने उसे अपने नाखूनों से पकड़ कर निकाल लिया। यह कागज का एक पुर्जा था। डब्बू उसे खोलकर उसमें लिखे संकेत को पढ़ने लगा। उसमें लिखा था-
"बटन दबाने वाला व्यक्ति जब सूक्ष्म तरंगों में बदला हुआ हो, तो उस समय लाल बटन को फिर से दबाने पर वह किसी की भी बोली को अपनी भाषा में सुन सकता है।"
डिबिया का यह संकेत पढ़कर तो डब्बू की बाँछें खिल गईं। अब वह जानवरों की बातचीत भी सुन सकेगा। कितना मज़ा आयेगा, यह सोचकर ही डब्बू को रोमांच होने लगा।
डब्बू ने डिबिया का लाल बटन दबाया और सूक्ष्म तरंगों में बदल गया। मन में जंगल में घूमने का विचार करके उसने पीला बटन दबा दिया। डब्बू जंगल में विचरण करने लगा, तभी उसने देखा कि एक स्थान पर जानवर एकत्र हो रहे हैं। कोई किसी से लड़ नहीं रहा है, कोई किसी को मार नहीं रहा है, सब चुपचाप एकत्र हो रहे हैं।
डब्बू बरगद के पेड़ की एक डाल पर बैठ गया। उसने लाल बटन एक बार पुन: दबा दिया। अब वह जानवरों की सारी बातें अपनी भाषा में सुन सकता था। डब्बू सतर्क हो गया और कान लगाकर जानवरों की बातें ध्यान से सुनने लगा। डब्बू को यह जान लेने की जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी कि- 'आखिर इतने सारे जानवर इकट्ठे क्यों हो रहे हैं?` आदमी तो इकट्ठे होते हैं, पर जानवरों की भी मीटिंग होती है, यह तो उसने केवल कहानियों में ही पढ़ा था, कभी देखा नहीं था और न उसके किसी 'सर` या 'मैडम` ने ही कभी बताया था। खैर वह आश्वस्त हो गया कि आज वह जानवरों की मीटिंग को खुद देखेगा और बातें भी सुनेगा।
जंगल में शिक्षा व्यवस्था
जानवर आ-आकर चुपचाप बैठते जा रहे थे। ऐसा लग रहा था कि सबके लिए पहले से ही स्थान निर्धारित थे। कोई किसी से बोल नहीं रहा था। सामने मंच पर लोमड़ी माइक लगा रही थी। सभी जानवर शेर महाराज की प्रतीक्षा कर रहे थे। तभी मंच पर शेर जी प्रकट हुए। सभी जानवर अभिवादन के लिए अपने-अपने स्थान पर उठकर खड़े हो गये। शेर ने सबको बैठने का संकेत दिया और सब बैठ गये।
भारी-भरकम शरीर के ऊँट जी माइक पर आये और सबका अभिवादन करते हुए बोले-
"आज हम सब यहाँ एक गम्भीर विषय पर विचार-विमर्श करने के लिए एकत्र हुए हैं। हम सब प्रकृति की गोद में पलने वाले प्राणी हैं। हमें अपने बलबूते पर जीना पड़ता है और हर समय सतर्क रहना पड़ता है। इन सब बातों से हमारी आने वाली पीढ़ियाँ परिचित होती रहें, इसके लिए शिक्षा अनिवार्य है। आज की सभा में शिक्षा व्यवस्था पर विचार किया जायेगा।........जंगल में शिक्षा की क्या व्यवस्था चली आ रही है और उसमें सुधार की क्या आवश्यकता है? इस विषय पर हाथी जी का मुख्य भाषण होगा। मैं हाथी जी को मंच पर आमंत्रित करता हूँ कि वे कृपया मंच पर आयें तथा सभा को संबोधित करें।"
डब्बू को अपने 'सर` की बात याद आ गई। उसके 'सर` ने कक्षा में कई बार बताया था कि किसी भी सभा में जाते समय डायरी और पैन अवश्य ले जाना चाहिए ताकि अच्छी और जरूरी बातों को नोट किया जा सके। डब्बू ने अपना पैन और डायरी निकाल ली तथा सतर्क होकर बैठ गया।
हाथी ने अपनी सूँड़ उठाकर सबका अभिवादन किया और बोला-
"भाइयो और बहनों! आज की सभा में अत्यंत गम्भीर विषय पर भाषण देने के लिए मुझे बुलाया गया है। जंगल की शिक्षा-व्यवस्था के सम्बंध में मैंने जो कुछ साठ वर्ष में देखा है, उसी के आधार पर आपके सामने अपने विचार प्रस्तुत कर रहा हूँ-
जंगल, प्रकृति की सबसे सुन्दर वस्तु है। हम प्रकृति की गोद में रहते हैं। प्रकृति हमारी माँ है। हमें अपना पेट भरने के लिए स्वयं व्यवस्था करनी पड़ती है। आदमी भी कभी हमारी तरह प्रकृति का प्राणी था, पर वह तो प्रकृति का शत्रु बन बैठा है। वह अपने को शिक्षित कहता है और हमें अशिक्षित कहता है। परन्तु ऐसी बात बिल्कुल नहीं है। हमारे यहाँ शिक्षा की अच्छी व्यवस्था बहुत पहले से ही चली आ रही है। हम सब जानवर और पशु-पक्षी अपने बच्चों को चलना, उड़ना, शिकार करना, बाहर घूमना, घर बनाना, सावधान रहना, बीमारी से बचने के लिए वनस्पतियों का सेवन करना यह सब सिखाते हैं।.......जब हमारा पेट भरा होता है तो हम शिकार नहीं करते हैं......बताइये यह अच्छी शिक्षा का असर नहीं, तो और क्या है.........?"
सभी जानवर ने स्वीकृति में सिर हिलाने लगे। हाथी ने आगे कहा-
"हम एक साथ पानी पीते हैं, एक साथ जंगल में रहते है। हमारे यहाँ सांप्रदायिक दंगे नहीं होते। हम सब समान हैं, हम संग्रह में विश्वास नहीं करते क्योंकि संग्रह ही झगड़े की जड़ है। हममें कोई बड़ा-छोटा नहीं है।.......हम जंगल का संतुलन बनाकर रखते हैं। शाकाहरी जानवर जंगली वनस्पतियों को अधिक नहीं बढ़ने देते। मांसाहारी जानवर छोटे जानवरों की जनसंख्या को संतुलित किए रखते हैं। जब कोई जानवर मरता है, तब हमारे कई साथी उसके मृत शरीर को खाकर जंगल को प्रदूषण से मुक्त रखते हैं।......अब आप बताइये कि यह सब हमारी अच्छी शिक्षा-व्यवस्था का परिणाम है या नहीं!"
सभी जानवर 'हाँ जी......हाँ जी....` कहने लगे।
"जी हाँ! यह हमारी अच्छी शिक्षा-व्यवस्था का ही परिणाम है, परन्तु अब मैं आप सबके सामने यह प्रस्ताव रख रहा हूँ कि शिक्षा-व्यवस्था में कुछ सुधार किये जायें। कारण यह है कि आदमी नाम का प्राणी हमारा सर्वनाश करने पर उतर आया है। वे जंगलों को काट रहे हैं, जानवरों को मार रहे हैं। सुना है कि हमारी खालें, हमारे दाँत, हमारे सींग आदि वे बेचते हैं और रुपये के लोभ में हमें मारते जा रहे हैं।"
पीछे कोने में बैठी सियारनी खड़ी होकर पूछने लगी-
"यह रुपया क्या होता है?"
"रुपया, कागज का टुकड़ा होता है, जिससे आदमी हर चीज खरीद सकता है।" -हाथी ने सियारनी को समझाते हुए कहा।
"हाँ, तो मैं कह रहा था कि रुपयों के लोभ में आदमी हमें उजाड़ता जा रहा है। ऐसे में हमें क्या करना चाहिए....!......यह एक बहुत गंभीर प्रश्न है।.......आदमी को हम सबक सिखा सकें, यह तो मुश्किल है......हाँ! हम अपने को आदमी जैसा अशिक्षित न बनने दें.......यह हमारा निवेदन है।"
"आदमी तो शिक्षित होता है.......सुना है कि उसने पढ़ने-पढ़ाने के लिए विद्यालय खोल रखे हैं, फिर आप उसे अशिक्षित कैसे कह रहे हैं, हाथी भाई?" -चौथी पंक्ति में बैठे भोलू बन्दर ने खडे होकर पूछा।
हाथी ने गम्भीर होते हुए कहा-
"भोलू बन्दर ने बिलकुल सही बात कही है। आदमी ने पढ़ने-पढ़ाने के लिए बहुत से विद्यालय खोल रखे हैं और उसे लिखना-पढ़ना भी आता है। परन्तु केवल लिखना-पढ़ना आ जाना 'शिक्षित` हो जाना नहीं है। पढ़ा-लिखा आदमी 'साक्षर` हो सकता है, शिक्षित नहीं। यही आदमी कर रहा है। वह साक्षर हो रहा है परन्तु शिक्षित की जगह अशिक्षित होता चला जा रहा है। अगर ऐसा नहीं होता तो वह पेट भरा होने पर भी हमारा बेरहमी से शिकार नहीं करता। जंगलों को यूँ ही नहीं उजाड़ता फिरता। वह तो इतना अशिक्षित है कि आदमी, आदमी को बिना बात पर मार रहा है। आदमी अपनी मौत का उपाय खुद करता जा रहा है........लेकिन क्या किया जा सकता है? उसे हम समझा भी तो नहीं सकते!.........वह जानता है कि जंगल नष्ट हो जाने से प्रकृति का संतुलन खराब हो जाएगा। यहाँ तक कि पूरी सृष्टि भी समाप्त हो सकती है। परन्तु अपने थोड़े से लालच के लिए आदमी यह सब करता चला जा रहा है।"
मेरा भाषण बहुत लम्बा हो गया, इसके लिए क्षमा करें.....संक्षेप में अब मैं अपना विचार रख रहा हूँ, यदि आप सब सहमत हों तो कृपया स्वीकृति दें-
"हम अपने वंशजों को पूरी लगन से शिक्षित बनाने में जुटे रहें। हम अपने बच्चों को ऐसी शिक्षा दें कि वे जीवन-मूल्यों का पालन करें। कभी कोई ऐसा कार्य न करें जिससे हमारी जानवर जाति पर कलंक लगे। इसके लिए सुविधाजनक जगह पर हम भी विद्यालय खोल सकते हैं, जहाँ पर अपने बचाव की, शिकार करने की, जंगल के प्रति बफादार रहने की शिक्षा दी जा सके।......जानवरों की कुछ जातियाँ बहुत खानदानी हैं, उनकी सब इज्ज़त करते हैं, पर कुछ जानवर बदनाम हो चुके हैं।
मैं किसी का नाम तो नहीं ले रहा हूँ, पर संकेत कर रहा हूँ कि उन्हें ीाी इन विद्यालयों में शिक्षित होने का अवसर मिलेगा।........हाँ, एक बात और वह यह कि शिक्षकों का चुनाव बहुत सोच-समझकर किया जाये और उनका पूरा सम्मान किया जाये। इसी के साथ मैं अपना भाषण समाप्त करता हूँ।"
हाथी जी अपना भाषण समाप्त कर अपने स्थान पर बैठ गए। सभा ने चारों ओर से तालियाँ बजाकर हाथी की बातों का समर्थन किया।
सभापति के आसन पर विराजमान शेर ने खड़े होकर हुंकार भरी। एक बार तो पूरा जंगल स्तब्ध रह गया-
"जंगल के सभी जानवरो! हाथी जी ने जंगल की पूरी परम्परा आपके सामने संक्षेप में प्रस्तुत की और शिक्षित होने के लिए एक प्रस्ताव रखा। इस प्रस्ताव को मैं अपनी स्वीकृति देता हूँ। जंगल में जगह-जगह विद्यालय खुल जाने चाहिए। विद्यालयों में अच्छे शिक्षक ही रखे जायें, जिन्हें जंगल के रीति-रिवाजों का अच्छा ज्ञान हो और जिनमें लोभ-लालच न हो।
विद्यालय एक सप्ताह के अन्दर खुल जाने चाहिए। वेतन के रूप में शाकाहारी शिक्षकों को एक गट्ठर हरी-हरी घास और मांसाहारी शिक्षकों को एक छोटा जानवर प्रतिदिन खाने के लिए दिया जायेगा। विद्यालयों के निरीक्षण के लिए एक 'निरीक्षक दल` होगा, जो समय-समय पर निरीक्षण रिपोर्ट देता रहेगा।..........अब आप सब अपने-अपने घर जा सकते हैं। यहाँ आने के लिए आप सबका धन्यवाद।" -शेर अपना भाषण समाप्त करके अपनी गुफा की ओर चल दिया।
"महाराज, आपके भोजन के लिए आया हूँ, आज मेरी बारी है।" -एक छोटे से ऊदबिलाव ने शेर के पास आकर डरते हुए कहा।
"भाई! आज अच्छी-अच्छी बातें सुनने के बाद तुम्हें खाने को मेरा जी नहीं चाह रहा है और जब तक भूख असहनीय न हो जाये, तब तक हम एक-दूसरे का शिकार नहीं करते। अभी मेरी भूख असहनीय नहीं है, इसलिए हम नियमों को कैसे तोड़ सकते हैं!..........तुम जा सकते हो।" -शेर ने ऊदबिलाव की ओर मुस्करा कर कहा।
"महाराज! आप धन्य हैं.......आप की जय हो।" -कहते हुये ऊदबिलाव उछलता-कूदता हुआ अपने घर की ओर भाग गया।
डब्बू ने आज जो दृश्य देखा और जानवरों की बातें सुनी, उससे उसने बहुत-सी नई बातें सीखीं। इतने अच्छे विचार जानवर रखते हैं, यह तो उसने कभी सोचा भी नहीं था। आदमी के बारे में जानवरों की ऐसी धारणा है.......क्या यह वास्तव में सच है?.......आदमी इतना लालची है।
डब्बू की बस्ती में भी लोग छोटी-छोटी बातों पर लड़ते रहते हैं। इसे वह रोज देखता ही रहता है। डब्बू को लगा कि जानवर ठीक ही कहते होंगे। शेर ने ऊदबिलाव के कहने पर भी उसे नहीं खाया। इसे देखकर डब्बू आश्चर्य चकित रह गया। उसने तो यही सुना था कि शेर के आगे जो भी आता है, वह उसे खा जाता है, परन्तु आज उसने इस बात को झूठ होते अपनी आँखों से देखा था।
डब्बू को ध्यान आया कि अब काफी समय हो गया है, उसे घर पहुँचना चाहिए नहीं तो माँ चिन्तित होगी। डब्बू ने डिबिया का पीला बटन दबाते हुए झुम्मन की बगीची में जाने की बात मन में सोची। कुछ ही पल में डब्बू बगीची में पहुँच गया। उसने सफेद बटन दबाया, अब डब्बू अपने असली रूप में आ गया।
डिबिया को बैग में रखकर डब्बू, अपने घर की ओर चल दिया। घर पहुँच कर डब्बू ने अपना बैग रखा, ड्रेस उतार कर पाजामा-कुर्ता पहना, हाथ-मुँह धोया और नाश्ता करने बैठ गया। नाश्ते के बाद अपनी कापी-किताबें लेकर बैठ गया और पढ़ने लगा। डब्बू अपना सारा कार्य समय पर पूरा करता था, इसलिए उसके माता-पिता और 'सर` तथा मैडम उसे बहुत प्यार करते थे। अपना कार्य समाप्त करे डब्बू आज जल्दी ही सो गया।
जंगल में जन्मदिन
डब्बू आज स्कूल न जाकर सीधा जंगल में आ गया था। जंगल में वह जो कुछ देखता, उसे अपनी डायरी में नोट करता जा रहा था। जंगली जानवरों के बहुत से रहस्य वह जान चुका था। डब्बू की निगाह एक भारी-भरकम पेड़ के पीछे बनी गुफा की ओर गई। गुफा में क्या है?...... यह जानने की जिज्ञासा, डब्बू के मन में हुई। वह गुफा के अन्दर चला गया। उसने देखा कि गुफा के अन्दर से एक चीता बाहर की ओर आ रहा है जो आदमी की तरह कपड़े पहने हुए है। पहले तो डब्बू को लगा कि यह कोई शिकारी होगा, पर जब पास से देखा तो वह चीता था। चीता भी आदमी की तरह कपड़े पहन सकता है, डब्बू ने पहले कभी नहीं सोचा था। उसके मन में जिज्ञासा हुई कि देखा जाये- यह जा कहाँ रहा है?
डब्बू चीते के साथ-साथ चलने लगा। उसे किसी बात का डर तो था ही नहीं। चीता छलाँगें लगाता चला जा रहा था। रास्ते में उसने एक-दो अन्य जानवरों को कपड़े पहने देखा। डब्बू को आश्चर्य हो रहा था। चीता, बरगद के एक बहुत बड़े पेड़ के पास रुका और उसने अपनी भाषा में कुछ कहा। डब्बू की समझ में कुछ नहीं आया। तभी डब्बू का ध्यान गया कि उसने डिबिया का लाल रंग का बटन दुबारा नहीं दबाया है।
बटन दबाते ही चीते की भाषा डब्बू की समझ में आ गई। चीता, अपने मित्र लंगूर को बुला रहा था। बरगद की जड़ें लगभग एक किलोमीटर व्यास तक फैली हुई थीं। उन्हीं के अन्दर लंगूर जी ने अपना घर बना रखा था।
चीते की आवाज सुनकर लंगूर ने कहा-
"अरे भाई! अन्दर आ जाओ........बाहर क्यों चिल्ला रहे हो?"
"तुम अभी तक तैयार नहीं हुए?.......क्या तुम्हें लिच्ची बंदरिया ने अपने बच्चे के जन्मदिन पर नहीं बुलाया है?" -चीते ने पूछा।
"बुलाया तो है मित्र चीताराम! पर एक समस्या मेरे सामने आ गई है......इस कारण मैं लिच्ची बंदरिया के बच्चे के जन्मदिन पर नहीं चल सकूँगा।" -लंगूर ने उदास मन से कहा।
"ऐसी क्या समस्या है?" -चीते ने माथे पर बल डालते हुए आश्चर्य से पूछा।
"बात यह है कि पिछली सभा में इमलिया चौक विद्यालय के मास्टर जी ने यह प्रस्ताव रखा था कि- जब हम सब जानवर कोई सभा करें, तो उसमें सभी कपड़े पहन कर आवें। कोई जानवर नंगा नहीं आयेगा। नंगे रहना अशिक्षा और असभ्यता की निशानी है। और यह प्रस्ताव सर्व सम्मत से स्वीकार कर लिया गया था।" लंगूर ने कहा।
"तो इसमें परेशानी की क्या बात है?.....कपड़े पहन कर ही चलो, तुमसे नंगे चलने के लिए कौन कह रहा है!" -चीते ने हँसते हुए कहा।
"भाई, पहले पूरी बात तो सुनो।"
"हाँ, सुनाओ।"
"बात यह है कि पिछली सभा में से आते समय मैंने रास्ते में आम का एक बड़ा पेड़ देखा। उस पर पके हुए आम लगे हुए थे। मेरा मन ललचाया। मुझे यह ध्यान ही नहीं रहा कि मैं पाजामा और शर्ट पहने हुए हूँ, मैं पेड़ पर चढ़ गया। उतरते समय मैंने एक डाल से दूसरी डाल पर छलाँग लगायी। एक सूखी टहनी में उलझ कर मेरा पूरा पाजामा फट गया। अब मेरे पास पहनने के लिए दूसरा पाजामा नहीं है। फिर भला तुम्हीं बताओ कि मैं कैसे जाऊँ?" -लंगूर इतना कहकर बहुत उदास हो गया और उसने अपना फटा हुआ पाजामा चीते को लाकर दिखाया।
चीते ने फटे हुए पाजामे को उलट-पुलट कर देखा और गंभीर चिंतन में लग गए मानो अभी-अभी कोई हल खोज लेंगे।
चीता जी के मुँह पर थोड़ी-सी मुस्कराहट आई। उन्होंने लंगूर की ओर देखकर कहा- 'मिल गया, एक उपाय मिल गया।`
"क्या उपाय मिल गया?" -लंगूर ने ललचाई आँखों से चीते की ओर देखा।
"ऐसा करो, कि इस पाजामे को अपनी कमर के चारों ओर लपेट लो और नाड़े से इसे बाँध लो, पूँछ को एक हाथ से पैरों के बीच से निकाल कर आगे की ओर पकड़ लो.......बस, तुम नंगे नहीं दिखाई दोगे।"
लंगूर ने ऐसा ही किया। डब्बू को यह देखकर खूब हँसी आ रही थी।
चीता और लंगूर, लिंची बंदरिया के घर की ओर तेजी से चल दिये। डब्बू भी साथ-साथ चलने लगा।
रास्ते में डब्बू ने देखा कि अनेक जानवर कपड़े पहने हुए चले जा रहे हैं। डब्बू बहुत खुश हो रहा था।
बड़े से मैदान में जन्मदिन का उत्सव मनाया जा रहा था। सभी जानवर कुछ न कुछ उपहार लेकर आये थे। अपने-अपने कपड़ों को जानवर ऐसे पकड़े हुए थे, मानो कि वे उतर कर गिर पड़ेंगे। कपड़े पहनने का अभ्यास न होने से उन्हें अजीब-सा लग रहा था। लिंची बंदरिया ने तो बनारसी साड़ी पहन रखी थी। उसका प्यारा सा बच्चा, झबला पहने हुए एक पालने में लेटा हुआ था। जानवर, लिंची के बच्चे को प्यार से उठाते, खिलाते और फिर दूसरा जानवर खिलाने के लिए उसे ले लेता।
जिराफ़ ने पीले रंग का कोट और पतलून पहन रखा था। लिंची के बच्चे को उसने खिलाने के लिए उठा लिया, तभी लिंची के बच्चे 'कुच्चू` ने उसके कपड़ों को गीला कर दिया। सब खिलखिला कर हँस पड़े।
सब जानवरों ने मिलकर एक बहुत बड़ा केक बनाया था। केक काटा गया, सब ने तालियाँ बजायीं और 'हैप्पी बर्थ डे टू कुच्चू` कहा, फिर सबने मिलकर केक खाया।
सभी को केक खाते हुए देखकर डब्बू के मुँह में भी पानी आ गया। वह चुपचाप बैठा दूर से ही आनन्द ले रहा था।
लोमड़ी ने कहा- "भाइयो और बहनों! आज खुशी का दिन है, सभी जानवर यहाँ एकत्र हैं.....।"
"शेर जी क्यों नहीं आये?......" -पीछे से आवाज आयी।
लोमड़ी ने सबको संबोधित करते हुए कहा- "शेर जी की तवीयत ठीक नहीं है, इसलिए वे नहीं आ सके। उन्होंने अपनी शुभकामनाएँ भेजी हैं.......अब नाच-गाना शुरू होना चाहिए। इसके लिए आप लोग बारी-बारी से आते जाइये।"
सबसे पहले सियारनी निकल कर आयी। सियारनी ने साड़ी पहन रखी थी। बालों का बड़ा-सा जूड़ा वह बाँधे हुए थी। कमर लचका-लचका कर उसने नाचना शुरू किया, साथ में गाना भी गाया-
जंगल में मंगल मनाएँ भाई
नाचें भाई, गायें भाई
ठुम्मक ठुम्मक
ठुम्मक ठुम्मक........"
सियारनी उछल-उछल कर नाच रही थी, तभी उसके जूड़े के अन्दर छिपा हुआ बड़ा-सा आलू निकल कर बाहर गिर पड़ा। सब हँसने लगे और सियारनी शरमा कर भाग गई।
अब जानवरों ने हाथी जी को खड़ा किया। वे नाचने से कतरा रहे थे पर जानवर थे कि मान ही नहीं रहे थे। आखिर हाथी जी को सबकी बात माननी पड़ी। हाथी जी का पाजामा थोड़ा चुस्त हो गया था, या तो वे कपड़ा कम लाये थे या फिर दर्जी ने कपड़े की चोरी कर ली थी। खैर हाथी जी उसी पाजामें से अपना काम चला लेते थे। हाथी जी खड़े होकर झूमने लगे। गधेराम ने गाना शुरू किया, मेढक जी ने ढोल बजाया, फिर क्या था हाथी जी को भी जोश आ गया। पहले थोड़ा सा हिले, फिर लगे कमर मटकाने। जैसे ही वे तेजी से झुके कि उनका पाजामा फट गया और हाथी राम भरी सभा में नंगे हो गए। सब खी-खी-खी करके हँसते-हँसते लोट-पोट हो गए। हाथी राम की दयाा तो देखने लायक हो गयी। इसके बाद जो भी नाचने आता, अपने कपड़ों का बहुत ध्यान रखता। खूब देर तक नाच-गाना चलता रहा।
डब्बू को भी खूब आनन्द आ रहा था। थोड़ी देर बाद नाच-गाना बन्द हुआ। सब जानवर अपने-अपने घर चले गए।
डब्बू भी वहाँ से चल दिया। वह रास्ते में सोचता आ रहा था कि-
"जानवरों की कैसी अच्छी दुनिया है। सब मिल-जुल कर मस्त रहते हैं। आदमी अपने थोड़े से लाभ के लिए इनकी खुशियाँ छीन लेता है। आखिर क्या मिलता है आदमी को? क्यों करता है जानवरों पर अत्याचार? शिक्षित होकर क्या उसने जानवरों पर अत्याचार करना ही सीखा है? क्या यही शिक्षा है? यदि वास्तव में यही शिक्षा है, तो इससे तो अच्छा है कि हम अशिक्षित ही बने रहें।" -डब्बू यही सोचते-सोचते अपने घर पहुँच गया।
ओझा से भिड़ंत
आधी रात का समय था। सब अपने-अपने घर में सोये हुए थे। धीरे-धीरे लोगों में कानाफूसी होने लगी। सब के चेहरों पर डर छाया हुआ था। डब्बू कमरे के अन्दर सो रहा था। उसकी भी नींद खुल गई। उसने देखा कि झुम्मन की बगीची के अन्दर आज फिर उजाला दिखाई दिया है। डब्बू ने तुरन्त निश्चय किया कि आज इस रहस्य को निकट से देखा जाये। यद्यपि इसमें बहुत बड़ा ख्तरा है। घर वाले डिबिया वाली बात जान गए तो खैर नहीं। बगीची में जाने पर कोई बड़ी अनहोनी भी हो सकती है, परन्तु रहस्य की तह तक जाने के लिये खतरे तो उठाने ही पड़ते हैं। डब्बू को अपने 'सारस्वत सर` की कही हुई बात याद आ गई- "जो समुद्र की गहराई में जाने का साहस रखता है, उसी को असली मोती मिल पाते हैं और जो लोग डूबने के डर से किनारे पर से ही वापस आ जाते हैं, उन्हें मोती कभी नहीं मिलते, सीप और घोंघे ही मिल पाते हैं।"
डब्बू ने इस बात को याद करके अपना मन पक्का कर लिया और तय कर लिया कि आज बगीची के रहस्य को जानने के लिए वह जरूर जायेगा।
डब्बू ने दो तकियों को अपनी चारपाई पर रखा और ऊपर से उन पर कम्बल उढ़ा दिया ताकि देखने पर लगे कि डब्बू सो रहा है। डब्बू ने अपनी डिबिया का लाल बटन दबा दिया और बगीची में जाने की बात सोचकर पीला बटन दबा दिया। डब्बू अब बगीची में आ गया था। बगीची में आकर डब्बू ने देखा कि प्रकाश की तेज किरणें बगीची में फैली हुई हैं। तभी पेड़ों के ऊपर डब्बू को कोई गोल-गोल चीज चकरी की तरह घूमती दिखाई दी। डब्बू घबरा गया लेकिन उसने साहस नहीं छोड़ा।
गोल-गोल चीज का घूमना धीरे-धीरे रुक गया और प्रकाश भी कम हो गया। डब्बू ने देखा कि गोल चीज में से एक सूँड़ नीचे ओर लटक गई। उसमें से एक जीव बाहर निकला। वह धीरे-धीरे सूँड़ के सहारे नीचे आ रहा था। डब्बू ने देखा कि वह विचित्र जीव उसी झाड़ी के आस-पास कुछ खोज रहा है। डब्बू ने डिबिया का लाल बटन दबा दिया।
उसे जो कुछ सुनाई दिया, उसे सुनकर डब्बू मारे डर के काँपने लगा। डब्बू ने यह समझ लिया कि गोल यन्त्र के अन्दर से नीचे वाले जीव को संकेत मिल रहे थे। झाड़ी के पास वह जीव डिबिया को ही खोज रहा था। यन्त्र से आवाज आ रही थी- "एक्सवीन यन्त्र मिलना ही चाहिए। धरती के किसी आदमी के हाथ यह यन्त्र लग गया तो हमारे ग्रह के रहस्य यहाँ के लोग जान जायेंगे।"
नीचे वाला जीव बोला- "सर! एक्सवीन यन्त्र खोजने में हम अपनी जान लगा देंगे, पर वह मिल ही नहीं रहा है......ओवर.......।"
"हलो..........ऐसा लगता है कि यन्त्र किसी के हाथ पड़ गया है। अगर वह हमारे चकमक ग्रह तक यन्त्र के सहारे पहुँच गया, तो हमारा सब रहस्य जान जायेगा। ........ओवर.......!" यन्त्र से आवाज आयी।
"अब समय पूरा हो गया है। हम तीन मिनट से अधिक समय तक यहाँ नहीं रुक सकते, नहीं तो पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण हमें खींच लेगा और हमारा यान जलकर नष्ट हो जायेगा। यह हमारा आठवाँ अभियान है.......हम फिर आयेंगे।"
नीचे वाला जीव सूँड़ के सहारे ऊपर खिंचने लगा। पलक झपकते ही यन्त्र गायब हो गया।
डब्बू की समझ में दो बातें आयीं एक तो यह कि उसके पास जो डिबिया है निश्चय ही ये लोग उसी को तलाश रहे हैं। इसी डिबिया का नाम उनकी भाषा में 'एक्सवीन यन्त्र` है, और ये लोग चकमक ग्रह से आते हैं।
चकमक ग्रह का नाम तो डब्बू ने कभी सुना ही नहीं था। आज की इस रहस्यमयी घटना को देखकर डब्बू काफी डर गया, परन्तु उसने साहस नहीं छोड़ा। वह बटन दबाकर अपने घर वापस आ गया।
अब उसकी आँखों की नींद गायब हो चुकी थी। मुँह ढककर चुपचाप लेटा रहा और यही सोचता रहा कि चकमक ग्रह कैसा होगा?........वहाँ कब जाया जाये।
सुबह होते ही डब्बू के घर पर उसके कई पड़ोसी आ गए। सब रात वाली घटना पर भयभीत दिखाई दे रहे थे। सर्वसम्मत से यह निष्कर्ष निकाला गया कि यह सब भूत-प्रेत का चक्कर है। इसलिए शान्ति के लिए ओझा को बुलाया जाना चाहिए। घर-घर से चन्दा इकट्ठा हुआ। पास के गाँव में रहने वाले ओझा झण्डूमल को बुलवाया गया। झण्डूमल ने आग में लोबान डाला और कुछ बुदबुदाते हुए पानी का छींटा आग पर मारा। आग से धुआँ निकलने लगा। धुएँ के बीच में अपना मुँह ले जाते हुए ओझा चिल्लाया-
"पकड़ लिया.......पकड़ लिया......."
अपनी मुट्ठी को जोर लगाकर भींचते हुए झण्डूमल बोला-
"बोल!.......इतने दिनों से क्यों परेशान कर रहा था बस्ती के लोगों को?........बोल क्या चाहता है?.........कैसे छोड़ेगा यह सब......?"
झण्डूमल ने अपना मुँह ऊपर किया और हवा से बातें करने लगा। भय के मारे सब लोगों का बुरा हाल था। ओझा झण्डूमल खुद ही प्रश्न कर रहा था और उत्तर भी खुद ही दे रहा था। वह बोला-
"आखिर तू चाहता क्या है.....?.........अच्छा!......अच्छा....!!......नहीं....नहीं.........इनकी बस्ती को जलाकर खाक मत कर दे। .......तू जो कहेगा, यह लोग वही करेंगे...........हाँ, मैं वादा करता हूँ.........।" -झण्डूमल बोले चला जा रहा था।
"पीपल के पेड़ पर सोने का सिंहासन रखवा दूँ......? अच्छा......फिर तो तंग नहीं करेगा.......?.......अच्छा ठीक है........हाँ-हाँ ठीक है.......फिर तो इन्हें तंग नहीं करेगा........?.......अच्छा ठीक है............तेरा सिंहासन आज से सातवें दिन रख दिया जायेगा......ठीक!!.......हाँ, इसके बाद अगर तूने इन लोगों को तंग किया तो फिर समझ लेना, मेरा नाम भी ओझा झण्डूमल है। मैंने ऐसे-ऐसे जिन्न अपने वश में किए हुए हैं जो तुझे सात लोक तक नहीं छोड़ेंगे......अच्छी तरह समझ लेना।" -कहते-कहते ओझा झण्डूमल ने नारियल फोड़ दिया और कुछ बुदबुदाने लगा।
बस्ती के लोगों ने आनन-फानन में दो हजार रुपया इकट्ठे किये और उन्हें झण्डूमल के आगे रख दिया। झण्डूमल कहने लगा-
"यह क्या......? आप लोग खुद सिंहासन बनवाइए और खुद ही शनिवार की आधी रात को निर्वस्त्र होकर बगीची में पीपल के पेड़ के पास रखकर आइए। मैं इस धन को हाथ नहीं लगाता......।"
झण्डूमल ने शर्त ही ऐसी रख दी थी कि कोई भी जाने के लिए तैयार नहीं था। सभी ने मिलकर यह तय किया कि ओझा जी ही यह नेक कार्य करके बस्ती पर उपकार कर दें।......ओझा जी मान गए।
डब्बू को ओझा का यह नाटक बहुत बुरा लग रहा था। उसके मन में आया कि इसकी सारी पोल खोल दे, पर कुछ सोच-समझ कर उसने ऐसा नहीं किया। डब्बू ने ओझा से कहा कि मैं नहीं मानता कि यह भूत-प्रेत का चक्कर है.......कोई और कारण भी तो हो सकता है।
"तुम अभी बच्चे हो, इन बातों को नहीं समझते..........अभी भूत से मेरी बातें हो रही थीं, क्या उन्हें तुमने नहीं सुना?" -ओझा, डब्बू की ओर गुस्से से देखता हुआ बोला।
डब्बू को भी गुस्सा आ गया। वह बोला-
"मेरे 'सर` कभी झूठ नहीं बोलते। उन्होंने हमें बताया है कि भूत-प्रेत कुछ नहीं होता। यह सब तुम ओझा लोगों के ठगने के तरीके हैं।"
"नादान बच्चे..........मैं अभी तुझे भस्म कर दूँगा।" -ओझा आँखें लाल करके बुरी तरह चीखा।
डब्बू हँसने लगा और बोला-
"ओझा जी, तुम मुझे भस्म नहीं कर सकते, क्योंकि तुम्हारे पास कोई चमत्कार नहीं है......हाँ, मैं तुम्हें चमत्कार जरूर दिखा सकता हूँ.......देखोगे......?"
"हाँ....हाँ...दिखा........क्या दिखा सकता है......?" -ओझा गुर्राया।
"मैं अभी इस कमरे के अन्दर घुसूँगा। इसे अच्छी तरह देख लो। इसमें कोई खिड़की या दरवाजा नहीं है। एक ही दरवाजा है। बाहर से किवाड़ बन्द कर दो, फिर भी मैं इसमें से बाहर निकल कर दिखा सकता हूँ।" -डब्बू ने गर्व से कहा।
डब्बू को कमरे में बन्द कर दिया गया। उसने अपनी डिबिया का लाल बटन दबाया और बाहर आने की बात सोचकर पीला बटन दबा दिया। डब्बू बाहर आ गया। सब हैरान रह गए। ओझा भी हैरान रह गया। उसने ऐसा चमत्कार पहली बार देखा था।
ओझा हाथ जोड़ते हुये बोला-
"इस बच्चे ने मेरी आँखें खोल दी हैं। वास्तव में मुझे नहीं पता कि बगीची का रहस्य क्या है?...........मैं तो ऐसे ही धन ऐंठता रहा हूँ, अब तक।......आज से मैं यह सब छोड़ता हूँ।"
"तो फिर भूत से आप क्या बातें कर रहे थे?..........क्या वह सब नाटक था?" -मंगली चाचा बोले।
"हाँ!, वह सब नाटक था..........भूत-प्रेत कुछ नहीं होता है, यह तो मन का वहम है..........लोगों के इसी वहम का हम सभी ओझा फायदा उठाते रहते हैं।.....आज से मैं यह सब छोड़ता हूँ।" -ओझा ने हाथ जोड़ते हुए प्रायश्चित किया।
"ओझा जी ठीक कह रहे हैं। मैं जानता हूँ कि बगीची का रहस्य क्या है?.....पर अभी मुझसे आप लोग कुछ भी न पूछें। समय आने पर सबको बता दूँगा।........हाँ, आप सब निश्चिन्त रहें कि इस प्रकाश वाली घटना से किसी का कोई अहित होने वाला नहीं है।"
सब लोग डब्बू की ओर आश्चर्य से ऐसे देख रहे थे, मानो डब्बू बहुत बड़ा वैज्ञानिक बन गया हो।
डब्बू कहने लगा-
"यह सब रहस्यमयी चमत्कार हैं। सृस्टि बहुत बड़ी है। इतनी बड़ी कि हम अनुमान भी नहीं लगा सकते। प्रत्येक कार्य के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य होता है। जिन घटनाओं को हम समझ नहीं पाते, उन्हें हम भूत-प्रेत की घटनाएँ मान बैठते हैं और अनायास ही मन में डर बैठा लेते हैं। इसी मानसिक दशा का लाभ ओझा लोग उठाते हैं। हमें प्रत्येक घटना पर गम्भीरता से सोचना चाहिए। ऐसे भयभीत होने की जरूरत नहीं है।"
लोगों के मन से बगीची वाला डर कुछ कम होने लगा था। डब्बू का सभी लोग आदर करने लगे।
चकमक ग्रह की चमत्कारी दुनिया
चकमक ग्रह पर जाने के लिए डब्बू अपने को मानसिक रूप से तैयार कर चुका था। वह हर प्रकार के खतरों का सामना करने के लिए तैयार था। एक दिन अपनी माँ से कहने लगा-
"मम्मी! मैं किसी चीज की खोज कर रहा हूँ। इसके लिए मुझे बाहर जाना है। हो सकता है कि मुझे एक-दो दिन लग जायें, इसलिए तुम परेशान मत होना।"
माँ ने स्वीकृति में सिर हिला दिया। डब्बू अपनी माँ से चिपट गया और कहने लगा-
"मम्मी, तुम कितनी अच्छी हो। मुझे लग रहा था कि तुम मुझे मना कर दोगी।"
"नहीं बेटा!.....मैं जानती हूँ कि तू कोई बहुत बड़ा कार्य करने जा रहा है। ओझा से तुझे भिड़ते देखकर मैं अब समझ गई हूँ कि मेरा डब्बू सामान्य बालक नहीं है।" -माँ ने गर्व से कहा।
"अच्छा मम्मी, अब मैं जा रहा हूँ। तुम परेशान न होना।"
डब्बू बगीची की ओर चल दिया। बगीची में पहुँच कर उसने लाल बटन दबाया फिर चकमक ग्रह पर पहुँचने की बात सोचकर उसने डिबिया का पीला बटन दबा दिया। डब्बू अब एक अनजान दिशा की ओर तेजी से चला जा रहा था। उसे डर भी लग रहा था और रोमांच भी हो रहा था। दो-तीन घण्टे के बाद वह एक ग्रह पर पहुँच गया। डब्बू ने अनुमान लगाया कि यही चकमक ग्रह होगा। डब्बू, ग्रह पर घूमने लगा। उसने लाल बटन एक बार फिर दबाया ताकि वहाँ की बातें सुन और समझ सके।
डब्बू ने देखा कि वहाँ के आदमी विचित्र तरह के हैं। उनकी नाक हाथी की सूँड़ की तरह लम्बी है। बालों की जगह पर उनके सिरों में काँटे हैं। चेहरा ऐसा है कि देखते ही आदमी डर जाये।
डब्बू ने देखा कि एक चूहा, जो आकार में हाथी के बराबर होगा, उस पर एक आदमी बैठा हुआ है और चूहा तेजी से दौड़ रहा है। डब्बू को सब कुछ विचित्र-सा लगा। कुछ लोग मच्छरों पर बैठे हुए उड़ रहे थे। यह भी डब्बू को अजीब लगा। सबसे विचित्र बात तो डब्बू ने वहाँ यह देखी कि सभी के हाथ में एक-एक यन्त्र-सा था, जिससे वे जब चाहते, बच्चा बन जाते, जब चाहते बड़े हो जाते, जब चाहते तब खाना उनके सामने आ जाता और जब चाहते तब उड़ सकते थे।
डब्बू हैरान था, चकमक ग्रह की अनोखी दुनिया देखकर। उसने देखा कि एक भारी-भरकम शरीर वाला आदमी देखते-देखते नन्हा-सा बच्चा बन गया, फिर उसने यन्त्र से जाने क्या किया कि बहुत सारे पके फल उसके सामने आ गये। उसने जी भरकर फल खाये और फिर बड़ा बनकर उड़ गया।
एक जगह डब्बू ने देखा कि टॉफियों का पेड़ है। उस पर बहुत अच्छी-अच्छी टॉफी लगी हैं। छोटे-छोटे बच्चे टॉफी तोड़-तोड़कर खा रहे हैं। डब्बू का मन भी ललचाने लगा।
डब्बू ने देखा कि वहाँ महिलाओं के सिर पर बाल नहीं हैं। उनका सिर एकदम घोटम-घोट है। डब्बू उन्हें देखकर अपनी हँसी न रोक सका।
डब्बू को वहाँ के जानवर भी विचित्र तरह के लगे। कुछ तो ऐसे थे जिन्हें उसने देखने की कभी कल्पना भी नहीं की थी। एक जानवर ऐसा था जिसके दोनों ओर मुँह थे।
डब्बू वहाँ के जंगल देखना चाहता था। मन में यही सोचकर उसने पीला बटन दबा दबाया। अब डब्बू एक विचित्र प्रकार के जंगल में था। ऐसा जंगल उसने टेलीविज़न के एक सीरियल में देखा था। आज वह वास्तव में ऐसा जंगल देख रहा था। इस जंगल में विचित्र तरह के पेड़-पौधे थे।
पेड़ों की जड़ें ऊपर थीं। बड़े-बड़े जानवर भी उड़ रहे थे। टॉफियों के पेड़ डब्बू ने यहाँ भी देेखे।
चकमक ग्रह पर घूमते-घूमते डब्बू को पूरा दिन हो गया। अब उसे भूख लग रही थी। आते समय वह खाने की बात ही भूल गया था। यहाँ अगर वह कुछ खाता है तो निश्चय ही पकड़ा जायेगा। फिर वह धरती पर कभी नहीं लोैट पाएगा।
डब्बू भूख से व्याकुल हो रहा था। वह चलने के लिए तैयार हुआ, तभी उसने देखा कि ठीक वैसा 'यन्त्र` जिसे उसने बगीची में देखा था, उसके पास ही उतर रहा है। यन्त्र में से विचित्र प्राणी बाहर आया। डब्बू ने देखा कि तीन प्राणी आपस में बातें कर रहे हैं। डब्बू ध्यान से उनकी बातें सुनने लगा।
वे आपस में बातें कर रहे थे- "हम धरती का रहस्य जान चुके हैं परन्तु धरती वाले हमारा रहस्य नहीं जान पाये हैं............हम यह चाहते भी नहीं हैं कि वे हमारा रहस्य जान सकें।"
"धरती वालों के विज्ञान से हमारा विज्ञान बहुत आगे है।" -एक प्राणी बोला।
"धरती वालों से भले ही हमारा विज्ञान आगे हो पर वहाँ आपस में बहुत प्रेम है। आपस में रिश्ते हैं, जबकि हमारे यहाँ ऐसे रिश्ते नहीं हैं। हमारे यहाँ सब कुछ मशीनों पर निर्भर है। हमारी ज़िन्दगी मशीनी हों गई है।" -दूसरा प्राणी कहने लगा।
"हमारे यहाँ विचित्रता है परन्तु धरती पी सुन्दरता है। वहाँ के स्त्री-पुरुष कितने सुन्दर हैं, वहाँ के जंगल हरे-भरे हैं। लोग एक-दूसरे की सहायता करते हैं। वहाँ का विज्ञान भी बहुत उन्नति कर चुका है। कई ग्रहों पर तो पृथ्वीवासी हो आये हैं।.......हम पृथ्वी पर जाते हैं, इसकी जानकारी पृथ्वी वालो को है।" -तीसरा प्राणी कहने लगा।
तीनों प्राणियों की बातें डब्बू बड़े ध्यान से सुन रहा था। चकमक ग्रह के प्राणियों से धरती की प्रशंसा सुनकर डब्बू को बहुत खुशी हुई। तीनों प्राणियों की आँखों में उदासी झलक आयी। वे कहने लगे-
"हमें एक्सविज़न यन्त्र, हर हालत में खोज कर लाना है। यदि वह यन्त्र पृथ्वी वालों के हाथ लग गया तो अनर्थ हो जायेगा। उसमें सब संकेत लिखे हुए हैं।..............सबसे खास बात तो यह है कि उस यन्त्र की सहायता से हम पकड़े भी जा सकते हैं।" यह सुनकर डब्बू चौकन्न हो गया और बहुत ध्यान से उनकी बातों पर ध्यान देने लगा। वे कह रहे थे-
"जब हमारा यन्त्र, पृथ्वी के धरातल से सौ किलोमीटर की ऊँचाई तक हो, ऐसे समय उस एक्सविज़न यन्त्र का लाल बटन पाँच बार दबाने से हमारे यान को सूक्ष्म तरंगों में बदल देने वाली किरणें प्रभावहीन हो सकती हैं। ऐसे में हमें आसानी से पकड़ा जा सकता है।"
डब्बू ने इस रहस्यमयी जानकारी को सुनकर, डायरी पर सांकेतिक भाषा में नोट कर लिया। अब डब्बू के हाथ एक गम्भीर जानकारी लग गई थी।
डब्बू को जोर से भूख लग रही थी, इसलिए धरती पर जाने की बात सोचकर उसने डिबिया का पीला बटन दबा दिया।
दो-तीन घण्टे बाद डब्बू बगीची में आ गया। सफेद बटन दबाकर अपने असली रूप में आया और घर की ओर चल दिया।
डब्बू खुशी से पागल हुआ जा रहा था। उड़न तश्तरियों का रहस्य अब उसकी मुट्ठी में था। अब कभी भी वह इन्हें पकड़वा सकता था। यही सोचता हुआ वह घर पहुँचा। माँ उसकी प्रतीक्षा में बैठी हुई थी। डब्बू दोड़कर माँ के गले लग गया। आज वह बहुत बड़ी सफलता प्राप्त करके लौटा था। वह थककर चूर हो गया था। खाना खाकर डब्बू जल्दी ही सो गया।
जंगल का अस्पताल
डब्बू आज तीन-चार दिन बाद घर से बाहर निकला था। चकमक ग्रह की चमत्कारी दुनिया देखकर वह हैरान जरूर हुआ था, परन्तु उसे वहाँ की दुनिया अच्छी नहीं लगी थी। आज उसका मन कह रहा था कि 'जंगल में चला जाये`। जंगली जानवरों के बीच रहकर डब्बू बहुत खुश रहता। उनका भोलापन डब्बू का मन मोह लेता था।
डिबिया का लाल बटन दबाकर डब्बू जंगल में जाने की बात सोचने लगा और उसने पीला बटन दबा दिया।
अब डब्बू घने जंगल के बीच आ गया। वह धीरे-धीरे टहलने लगा। उसकी निगाह डपर गई तो उसने देखा कि सिरस के पेड़ पर बहुत बड़े-बड़े चमगादड़ लटक रहे है। चमगादड़ इतने थे कि पेड़ की पत्तियाँ भी दिखाई नहीं दे रही थीं। पूरे पेड़ पर काले-काले चमगादड़ ही दिखाई दे रहे थे। वे सब आपस में ऐसे लड़ रहे थे जैसे गरीब बस्ती के लोग शाम को शराब पी-पीकर आपस में लड़ा करते हैं। कुछ चमगादिड़ने अपने-अपने बच्चों को दूध पिला रही थीं।
डब्बू चमगादड़ों की दुनिया में खोया हुआ था, तभी थोड़ी दूर पर सेंभल के भारी-भरकम पेड़ के पास एक भालू बैठा हुआ दिखाई दिया। डब्बू उधर ही चल दिया।
"कैसे हो दीनू भालू!.......भोलू को कुछ फायदा हुआ कि नहीं?" -अपनी आँ पर से चश्मा निकालकर हाथों से आँखों की कोरें साफ करते हुए बूढ़े सियार मंगली ने पूछा।
"फायदा कुछ भी नहीं है, मंगली भैया!..........भोलू का बुखार कम ही नहीं हो रहा है। मैं तो बहुत परेशान हो गया हूँ........तुम्हीं बताओ, क्या किया जाये.....?" -कहते हुए दीनू भालू की आँखों में आँसू आ गये।
"चलो, भोलू को देखा जाये.......।" -मंगली ने दीनू भालू से कहा।
दोनों गुफा के अन्दर चल दिये। डब्बू भी साथ हो लिया।
"तुमने किसे दिखाया है?" -मंगली बोला।
"रम्मो गिलहरी काढ़ा दे गई है; उसी को पिला रहा हूँ।" -दीनू ने काढ़ा दिखाते हुए कहा।
"मेरी मानो तो काढ़े का चक्कर छोड़ो। बुदकी सियार का बड़ा बेटा डाकदरी करने लगा है.........तुम उसे दिखा दो।" -मंगली ने अपनी राय देते हुए कहा।
दीनू भालू ने कुछ याद करते हुए कहा- "बुदकी का बेटा रामू तो.......बिल्कुल भोंदू था। एक-एक कक्षा में तीन-तीन साल लगाता था.........वह तो चौथी कक्षा तक ही पढ़ पाया था.......फिर डाकदर कैसे बन गया.....?"
"अरे भैया!.......यह सब तो भाग्य का खेल है। अब उसकी दूकान पर मरीजों की भीड़ लगी रहती है।" -मंगली ने कहा।
"तुम कहते हो तो उसी को दिखा देते हैं..........मैं तो बहुत परेशान हो गया हूँ।"
"परेशान न हो दीनू........ईश्वर ने चाहा तो भोलू जल्दी ही ठीक हो जायेगा। चलो भोलू को वहीं ले चलते हैं।" -मंगली ने दीनू से कहा।
मंगली और दीनू, भोलू को लेकर रामू की दूकान पर पहुँचे। दूकान के अन्दर पड़ी तिपाई पर दीनू और मंगली ने भोलू को लिटा दिया।
रामू ने भोलू को देखना शुरू किया। कभी वह हाथ पकड़ कर देखता, कभी उसके पेट पर अपना कान लगा कर कुछ सुनता, कभी आँखों की पलकें उठाकर कुछ देखता।
दीनू और मंगली, चुपचाप यह सब देख रहे थे।
"दीनू काका, भोलू को सर्दी लग गई है........मैं इंजेक्शन लगाये देता हूँ.....ठीक हो जाएगा।" -रामू ने अपनी कुर्सी पर बैठते हुए कहा।
एक बड़ी-सी पिचकारी में दवा भरकर रामू ने भोलू के पेट में कोंच दी। भोलू दर्द से चीख पड़ा।
डब्बू चुपचाप यह दृश्य देख रहा था। उसने यह देखकर दाँतों तले उँगली दबा ली कि इंजैक्शन लगाने से पहले रामू ने उसे साफ नहीं किया था। जिस शीशी से इंजैक्शन लगाया गया था, वह पहले से ही खुली पड़ी थी। डब्बू को लगा कि यह असली डॉक्टर नहीं हो सकता। जरूर यह जंगल का झोला छाप डॉक्टर होगा। डब्बू को एक ही चिन्ता सताये जा रही थी कि इस गलत इंजैक्शन से भोलू की तबियत ठीक होने की जगह और खराब ही होगी। डब्बू कुछ कर भी तो नहीं सकता था, इसलिए वह चुपचाप देखता रहा।
दीनू और मंगली, भोलू को घर ले आये। घर लाते-लाते भोलू की तबियत बिगड़ने लगी। उसकी आँखें उलटने-पलटने लगीं और वह कुछ अनाप-शनाप बकने लगा। पूरे घर में कोहराम मच गया। भोलू की माँ झुनझुनी, चीख मारकर रोने लगी। रोना-चिल्लाना सुनकर कई जानवर दीनू के घर आ गये। सबके चेहरों पर उदासी छायी हुई थी। कोई कहता कि रामू ने गलत दवा दी है, कोई कहता 'रामू जानता ही क्या है?`......कहीं पड़ी हुई दवा की एक-दो शीशी मिल गईं और वह डाकदर बन बैठा।
दीनू पछता रहा था कि वह मंगली के कहने पर रामू के यहाँ आखिर भोलू को ले ही क्यों गया?.......जानवरों के अस्पताल में उसे जाना चाहिये था........।
"अब मैं क्या करूँ?" -कहते हुए दीनू फूट-फूट कर रो पड़ा।
दीनू की पड़ोसिन रम्मो बुआ, एक हाथ से अपनी धोती सँभालते हुए तेजी से आई और भीड़ को चीरती हुई सीधे भोलू की चारपाई के पास पहुँची। रम्मो बुआ को देखते ही भीड़ ने जगह दे दी।
रम्मो बुआ ने भोलू की आँखें देखीं.......फिर हाथ नचाते हुए बोलीं-
"तुम सब पागल हो गए हो........तुम्हें यह दिखाई नहीं दे रहा है कि इसकी बरौनियाँ कैसी खड़ी हैं?.......अरे! यह साफ-साफ चुरैल का फेर है........डाकदर से दवा दिलवा दी, इसलिए यह खिसिया गई है...........मेरी मानो तो घासीराम सियार को बुलवाओ...........नहीं तो ये मुई चुरैल, इसे साथ ले जायेगी........हाँ.....देख लेना.......।"
कुछ तो चुप रहे किन्तु कुछ ने रम्मो बुआ की हाँ में हाँ मिलाई।
दीनू बेचारा घबरा गया। उसकी हिचकी बँध गई। वह कहने लगा-
"अरे भाइयो!........जिसे बुलाना चाहो, बुला लो......मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है.......।"
ओझा घासीराम सियार को बुलाने के लिए दो-तीन जानवर तुरन्त चल दिये।
डब्बू, यह दृश्य देखकर बहुत दु:खी हो रहा था कि जंगल में भी भूत-चुरैल के चक्कर में विश्वास किया जाता है।
थोड़ी ही देर में ओझा घासीराम सियार आया। उसके एक हाथ में मोर के पंखों से बना एक गुच्छा था। वह लाल रंग का लम्बा कुर्ता और धोती पहने हुए था तथा माथे पर लाल रंग का बड़ा-सा तिलक लगाये हुए था। भोलू को देखते ही घासीराम सियार बुदबुदाने लगा। उसने एक हाथ से भीड़ को हट जाने का संकेत दिया।.......भीड़ पीछे हट गई।
ओझा ने कहा- "एक लोटा पानी और आग लाओ।" -तुरन्त पानी से भरा लोटा और आग आ गई।
ओझा बारबार कुछ बुदबुदाता और पानी के छींटे मारता जाता। बीच-बीच में ऊपर की ओर मुँह करके हवा में अपना दायाँ हाथ ऐसे लहराता मानो कि चीज को हवा में ही पकड़ने की कोशिश कर रहा हो।
अचानक ओझा घासीराम चिल्लाया- "पकड़ लिया......पकड़ लिया........पकड़ लिया.......... बहुत चालाक बनती थी.......आखिर घासीराम की पकड़ से कहाँ जायेगी!" -ओझा की बात सुनकर सबको थोड़ी तसल्ली हुई कि अब भोलू जल्दी ठीक हो जाएगा।
ओझा घासीराम फिर बुदबुदाने लगा और क्रोध से उसकी आँखें लाल हो गईं। यह चीखने लगा- "तू छूट कर कहाँ जाएगी........तू बहुत दुष्ट है.......ऐसे नहीं मानेगी........मैं भी तो देखूँ कि तू कैसे नहीं मानती है......।"
ओझा ने भोलू के सिर के बाल खींचकर पकड़ लिए। भोलू तिलमिला उठा , तभी ओझा ने अपने पैर से चप्पल निकाली और भोलू की पीठ पर लगा तड़ा-तड़ मारने। भोलू चीख रहा था, लेकिन ओझा रुक नहीं रहा था। वह कहने लगा- "यह बहुत दुष्ट किस्म की चुरैल है.......बिना मारे मेरी बात ही नहीं मानती.......अब कभी इस घर में कदम तक नहीं रखेगी।"
भोलू बेहोश होकर गिर पड़ा। ओझा भी शान्त हो गया। वह कहने लगा- "अब चुरैल इसे छोड़कर भाग गई है......यह दो-तीन घण्टे में ठीक हो जाएगा।"
डब्बू, भोलू की दशा देखकर बहुत दु:खी हो रहा था तभी दरवाजे पर एक बड़ी गाड़ी आकर रुकी। गाड़ी में से रामू लंगूर, जो जंगल का बड़ा डॉक्टर था, उतरा। उसके साथ कई और जानवर इस उड़नदस्ते में आये थे। सब एक साथ दीनू के घर में घुस पड़े। अचानक रामू डॉक्टर को अपने घर में आया देखकर दीनू चौंककर खड़ा हो गया और लगा गिड़गिड़ाने। तभी रामू ने दीनू को झिड़क दिया- "तुम्हें शर्म नहीं आती........बच्चा मर रहा है और तुम इस ओझा से झाड़-फूँक करवा रहे हो..........वह तो कहो कि झुन्नू खरगोश ने जंगल के अस्पताल में रिपोर्ट कर दी कि भोलू बहुत बीमार है और तुम इस ओझा से झाड़-फूँक के चक्कर में पड़े हो।"
रामू ने तुरन्त भोलू को देखा। थर्मामीटर से बुखार नापा और एक इंजैक्शन दिया।
"अगर आधे घण्टे की देर हो जाती तो भोलू की जान को खतरा हो सकता था।.......तुम सब जानवर भी अनजान बन जाते हो। कभी झोला छाप डॉक्टरों के पास जाओगे तो कभी ओझाओं के पास। आखिर जंगल के अस्पताल में क्यों नहीं आते?"
"अब ऐसी भूल कभी नहीं करूँगा.......मैं तो इस ओझा के चक्कर में पड़ गया था। आपका यह एहसानकभी नहीं भूलूँगा।" -दीनू ने रामू के आगे हाथ जोड़ते हुए कहा।
ओझा घासीराम धीरे-धीरे खिसकता जा रहा था, तभी चीताराम ने उसे पकड़ लिया- "तुम कहाँ जाते हो?.....तुमने जंगल के जानवरों को बहुत मूर्ख बनाया है.........अब चलो, तुम्हारी चुरैल देखते हैं।"
ओझा घासीराम को जंगल के उड़नदस्ते दल वाले पकड़कर अपने साथ ले गए।
भोलू ने आँखें खोल दीं। वह धीरे-धीरे ठीक होने लगा।
डब्बू ने राहत की साँस ली और वह अपने घर वापस आ गया।
डब्बू तीन-चार दिन से अपने विद्यालय नहीं गया था, इसलिए उसका मन घबरा रहा था। डिबिया का रहस्य वह किसी को बताना नहीं चाहता था। वह जैसे ही विद्यालय पहुँचा कि 'बत्रा सर` सामने खड़े दिखाई दे गए।। उनके डण्डे से सब बच्चे घबराते थे। बत्रा सर हर समय हाथ में डण्डा रखते। कक्षा में शायद ही कोई छात्र किसी दिन बचता हो, जो बत्रा सर के डण्डे की चपेट में न आ जाता हो। बत्रा सर की निगाह बचाते हुए डब्बू अपनी कक्षा में पहुँच गया।
डब्बू अपनी डिबिया आज विद्यालय में भी लाया था। डिबिया के संबन्ध में डब्बू मैत्रा मैडम को बताना चाह रहा था। मैडम आज सुबह से ही प्रैक्टीकल लेने में व्यस्त थीं। डब्बू दो-तीन बार उनके कक्ष की ओर गया, परन्तु वे अत्यधिक व्यस्त थीं।
डब्बू मैडम मैत्रा से मिलने उनके कक्ष में चला गया और बोला- "मैडम! आपसे कुछ जरूरी काम है।"
"हाँ.......हाँ.......बोलो ! क्या बात है.....?" -मैडम मैत्रा ने कहा।
डब्बू ने अपनी डिबिया की पूरी कहानी मैडम से कह सुनाई। मैडम को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि जो कुछ डब्बू कह रहा है, वह सच है। लेकिन डब्बू कभी झूठ नहीं बोलता था इसलिए उसकी बात पर विश्वास न करने का भी कोई कारण नहीं था।
मैडम मैत्रा ने कहा- "क्या तुम मुझे वह डिबिया दिखा सकते हो?"
"क्यों नहीं मैम....!.......मैं अपने बैग से डिबिया लेकर अभी आता हूँ।" -डब्बू ने कहा ।
"तुम्हें डिबिया को बैग में नहीं छोड़ना चाहिए.....जाओ, तुरन्त लेकर आओ।"
डब्बू अपनी कक्षा की ओर दौड़ चला।
कक्षा में मैडम देवरानी पहुँच चुकी थीं।
डब्बू ने देखा कि मैडम देवरानी के हाथ में डिबिया है। डब्बू यह देखकर हैरान रह गया। डब्बू ने देखा कि मैडम देवरानी की अँगुली, डिबिया के लाल बटन पर है। वह चीख पड़ा........"मैडम, ये बटन न दबा देना......" लेकिन बटन दब चुका था और मैडम देवरानी सूक्ष्म तरंगों में परिवर्तित हो चुकी थीं।
डब्बू चीखता रह गया। उसके सारे सपने उसकी आँखों के सामने ही समाप्त गये थे। देवरानी मैडम ने बिना सोचे-समझे यन्त्र का बटन दबा दिया था। स्वयं तो गायब हुईं, हाथ आये अनमोल यन्त्र को भी ले गईं। उन्हें पीले और सफेद बटन का रहस्य पता नहीं था, इसलिए सूक्ष्म तरंगों से अपने वास्तविक रूप में वे कभी नहीं आ सकीं।
डब्बू आज भी इस प्रतीक्षा में है कि शायद कभी देवरानी से सफेद बटन दब जाये, और वे डिबिया के साथ वापस आ जायें।
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डॉ० जगदीश व्योम